HARIDWAR: हरिद्वार शहर की स्थापना कब हुईं ? जानिए इसका इतिहास…

हरिद्वार, उत्तराखंड राज्य में स्थित एक प्राचीन शहर है, जिसका उल्लेख वैदिक ग्रंथों और पुराणों में मिलता है। यह धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। हरिद्वार का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है, और इसका संबंध वैदिक काल से जुड़ा हुआ है। हालाँकि, हरिद्वार के सटीक “स्थापना” की तिथि का उल्लेख नहीं मिलता, क्योंकि यह शहर सदियों से एक तीर्थ स्थल के रूप में विकसित हुआ है।

हरिद्वार का नाम संस्कृत के दो शब्दों “हरि” (भगवान विष्णु) और “द्वार” (द्वार/प्रवेश) से बना है, जिसका अर्थ है “भगवान के घर का द्वार”। यहाँ हर 12 साल में आयोजित होने वाला कुम्भ मेला भी इसका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व दर्शाता है।

भोले की कांवड़ क्यों लाते है.

भोलेनाथ (भगवान शिव) के भक्तों द्वारा कांवड़ लाने की परंपरा शिव भक्ति और समर्पण का प्रतीक है। इसे कांवड़ यात्रा कहा जाता है, और इस यात्रा का उद्देश्य पवित्र नदियों, विशेष रूप से गंगा नदी, से जल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाना होता है।

कांवड़ लाने के पीछे मुख्य कारण यह है:

  1. श्रावण मास का महत्व: श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) भगवान शिव का प्रिय महीना माना जाता है। इस दौरान भक्त कांवड़ लेकर शिवजी की आराधना करते हैं और अपने कष्टों से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं।
  2. पुण्य की प्राप्ति: मान्यता है कि पवित्र नदियों का जल शिवलिंग पर चढ़ाने से भक्तों के पाप समाप्त हो जाते हैं और उन्हें पुण्य की प्राप्ति होती है।
  3. आभार व्यक्त करना: भक्त भगवान शिव को जल चढ़ाकर उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं, जो जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करते हैं।
  4. समर्पण और तप: कांवड़ यात्रा को एक तरह का तप माना जाता है, जिसमें भक्त नंगे पैर चलते हैं और कई नियमों का पालन करते हैं। यह भक्ति और संकल्प का प्रतीक है।

कांवड़ यात्रा के दौरान भक्त गंगा, यमुना या अन्य पवित्र नदियों से जल भरकर अपने नजदीकी शिव मंदिरों में जाकर जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा शिवभक्ति की एक विशेष और महत्वपूर्ण परंपरा है।

कुम्भ मेला कब लगता है और क्यों लगता है

कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजन है, जो चार स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में आयोजित होता है। ये चार स्थान हैं:

  1. हरिद्वार (गंगा नदी के किनारे)
  2. प्रयागराज (संगम – गंगा, यमुना, और सरस्वती नदियों का संगम)
  3. उज्जैन (शिप्रा नदी के किनारे)
  4. नासिक (गोदावरी नदी के किनारे)

कुंभ मेला कब लगता है:

कुंभ मेला हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है, और प्रत्येक स्थान पर लगभग हर तीन साल में एक कुंभ मेला होता है। इसका आयोजन खगोलीय गणनाओं के आधार पर किया जाता है। जब सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति ग्रहों की स्थिति विशेष राशियों में होती है, तब इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है।

कुंभ मेले के प्रकार:

  1. पूर्ण कुंभ मेला: हर 12 साल में आयोजित होता है।
  2. अर्धकुंभ मेला: हर 6 साल में केवल हरिद्वार और प्रयागराज में होता है।
  3. महाकुंभ मेला: प्रयागराज में हर 144 साल में आयोजित होता है।

कुंभ मेला क्यों लगता है:

कुंभ मेला धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, और इसके पीछे कई पौराणिक कथाएँ हैं। प्रमुख कारणों में शामिल हैं:

  1. समुद्र मंथन की कथा: कुंभ मेले का आयोजन समुद्र मंथन से जुड़ी पौराणिक कथा पर आधारित है। जब देवताओं और असुरों ने अमृत (अमृत कुंभ) प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया, तो अमृत को पाने के लिए संघर्ष हुआ। कहा जाता है कि इस संघर्ष के दौरान अमृत की कुछ बूंदें चार स्थानों — हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक — पर गिरीं। इन स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरने से ये पवित्र स्थल बन गए, और यहाँ स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  2. पवित्र स्नान का महत्व: कुंभ मेले के दौरान पवित्र नदियों में स्नान को अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कुंभ के दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करने से सारे पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  3. साधुओं और संतों का मिलन: कुंभ मेला साधु-संतों, तपस्वियों और योगियों का सबसे बड़ा मिलन स्थल है। यहाँ विभिन्न अखाड़ों और मठों के साधु-संत एकत्र होते हैं, जो धर्म और आध्यात्म का प्रसार करते हैं।

कुंभ मेला हिंदू धर्म की आस्था, भक्ति और आध्यात्म का एक अद्भुत संगम है, जहाँ करोड़ों लोग एकत्रित होकर पवित्र स्नान, ध्यान, और पूजा-अर्चना करते हैं।