बढ़ती जंग का असर फ़लस्तीन बनने की उम्मीदों पर क्या पड़ेगा?

मध्य-पूर्व के करोड़ों लोग एक सुरक्षित और शांत ज़िंदगी जीने का ख़्वाब देखते हैं.

ऐसी ज़िंदगी जिसमें न नाटकीयता हो और न ही मौत का ख़ौफ़.

पिछले साल का युद्ध आधुनिक दौर में इस क्षेत्र की सबसे ख़राब जंगों में से एक रहा है.

इस युद्ध ने एक बार फिर दिखा दिया है कि अमन के ख़्वाब तब तक हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो सकते, जब तक यहाँ की गहरी और चौड़ी सामरिक, मज़हबी और सियासी खाइयों को पाटा नहीं जाता. एक बार फिर युद्ध इस इलाक़े की सियासत को अपने सांचे में ढाल रहा है.

हमास का हमला एक सदी से भी ज़्यादा पुराने और अनसुलझे संघर्ष के बीच से निकला था.

जब हमास के लड़ाके सुरक्षा की कमज़ोर दीवार को फांदकर इसराइल में दाख़िल हुए थे, तब उन्होंने इसराइल के इतिहास के सबसे स्याह दिन की इबारत लिख दी थी.

उस दिन लगभग 1,200 लोग मारे गए थे, जिनमें से ज़्यादातर इसराइल के आम नागरिक थे.

इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन को फोन किया और उनसे कहा, ”जर्मनी में होलोकास्ट के बाद से हमने इसराइल के अब तक के इतिहास में ऐसी बर्बरता पहले कभी नहीं देखी थी”. इसराइल ने हमास के हमले को अपने अस्तित्व के लिए ख़तरे के तौर पर देखा था.

उसके बाद से इसराइल ने ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों पर बहुत भयानक क़हर ढाया है.

हमास से संचालित ग़ज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ पिछले एक साल में इसराइल के हमलों में ग़ज़ा के लगभग 42 हज़ार लोग मारे गए हैं. इनमें से ज़्यादातर आम नागरिक थे.

ग़ज़ा का ज़्यादातर हिस्सा खंडहर में तब्दील हो चुका है. फ़लस्तीन के लोग इसराइल पर जनसंहार करने का इल्ज़ाम लगाते हैं.

जंग का दायरा अब बढ़ चुका है. हमास के हमले के 12 महीने बाद आज मध्य-पूर्व इससे भी भयानक युद्ध के कगार पर खड़ा है; जो इससे भी ज़्यादा व्यापक और इससे भी अधिक तबाही मचाने वाला होगा.

टूट गए कई सारे भ्रम

हत्याओं के इस साल ने बहुत सी ग़लतफ़हमियों को दूर कर दिया है. बहुत से भ्रमजाल तोड़ डाले हैं.

पहला तो बिन्यामिन नेतन्याहू का ये यक़ीन था कि वो फ़लीस्तीनियों के आत्मनिर्णय की मांग पर कोई रियायत दिए बग़ैर इस मसले का हल निकाल सकेंगे.

इसके साथ-साथ इसराइल के फ़िक्रमंद पश्चिमी दोस्त देशों की ख़ामख़याली भी हवा में उड़ गई.

अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों के नेताओं ने ख़ुद को ये विश्वास दिला लिया था कि ये युद्ध ख़त्म करने के लिए अपनी पूरी सियासी ज़िंदगी में इसराइल के साथ-साथ फ़लस्तीनी राष्ट्र बनाने का विरोध करने वाले नेतन्याहू से फ़लस्तीन के अस्तित्व पर हामी भरवाई जा सकेगी.

लेकिन इस मामले में नेतन्याहू का सीधा इनकार उनकी अपनी विचारधारा के साथ-साथ,असल में फ़लस्तीनियों के प्रति उस अविश्वास की अदायगी है जो इसराइल के हर नागरिक के दिल में है.

नेतन्याहू की ना ने शांति बहाली की अमेरिकी योजना पर भी पानी फेर दिया है.

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की ‘अदला बदली वाली महत्वाकांक्षी योजना’ में प्रस्ताव ये था कि इसराइल अगर फ़लस्तीन की आज़ादी के लिए तैयार हो जाएगा तो इसके बदले में उसे सबसे प्रभावशाली इस्लामिक मुल्क सऊदी अरब से पूरी कूटनीतिक मान्यता मिल जाएगी.

इसके एवज़ में सऊदी अरब को अमेरिका के साथ अपनी सुरक्षा की गारंटी का समझौता हासिल होगा.

लेकिन बाइडन की ये योजना पहले ही इम्तिहान में नाकाम हो गई. फ़रवरी में नेतन्याहू ने कहा था कि फ़लस्तीन को राष्ट्र का दर्जा देना हमास के लिए ‘बहुत बड़ा इनाम’ होगा.

नेतन्याहू की कैबिनेट के कट्टर राष्ट्रवादी मंत्री बेज़ालेल स्मोट्रिच ने कहा कि ऐसा क़दम इसराइल के ‘अस्तित्व के लिए ख़तरा’ होगा.

हमास के नेता याह्या सिनवार, जिनके बारे में ये माना जा रहा है कि वो ज़िंदा हैं और ग़ज़ा में कहीं छुपे हुए हैं, उनकी अपनी ग़लतफहमियां थीं.

एक साल पहले याह्या सिनवार ने यक़ीनन ये उम्मीद लगाई होगी कि जंग शुरू हुई तो ईरान की तथाकथित ‘प्रतिरोध की धुरी’ का हर पुर्ज़ा पूरी ताक़त से इसराइल को तबाह करने वाली इस जंग में शामिल हो जाएगा. सिनवार की ये सोच ग़लत साबित हुई.

याह्या सिनवार ने सात अक्टूबर के हमले की अपनी योजना को इतना गोपनीय रखा था कि उनके दुश्मन हैरान रह गए थे.

सिनवार ने इस हमले से अपनी तरफ़ के भी कुछ लोगों को हैरान कर दिया था.

कूटनीतिक स्रोतों ने बीबीसी को बताया कि सिनवार ने शायद, मुल्क-बदर होकर क़तर में रहने वाले अपने संगठन के सियासी नेतृत्व को भी अपनी योजना के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी थी.

उनकी सुरक्षा के इंतज़ाम इतने ख़राब थे कि इसके लिए वो बदनाम थे. एक स्रोत ने बताया कि क़तर में रहने वाले हमास के नेता ऐसी खुली फोन लाइनों पर बातें किया करते थे, जिन्हें आसानी से सुना जा सकता था.

जब इसराइल ने ग़ज़ा पर हमला किया और राष्ट्रपति बाइडन ने हिफ़ाज़त के लिए अमेरिका के जंगी बेड़ों को इसराइल के क़रीब तैनात होने का हुक्म दिया था तब सिनवार को ये उम्मीद थी कि ईरान भी उनकी तरफ़ से मुक़ाबला करेगा.

लेकिन इन अपेक्षाओं पर पानी फेरते हुए ईरान ने ये साफ़ कर दिया था कि वो युद्ध का दायरा बढ़ाने का इच्छुक बिल्कुल नहीं है.

इसके बजाय, हसन नसरल्लाह और उनके दोस्त और सहयोगी ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अपनी भूमिका को इसराइल की उत्तरी सीमा पर रॉकेट दागने तक सीमित रखा था.

दोनों का ये कहना था कि ग़ज़ा में युद्ध विराम होने तक वो इसराइल पर रॉकेट से हमले करते रहेंगे. हिज़्बुल्लाह के रॉकेटों का ज़्यादातर निशाना तो इसराइल के सैन्य ठिकाने थे.

लेकिन इसराइल ने लेबनान की सीमा के पास रहने वाले लगभग 60 हज़ार लोगों को वहाँ से निकाल लिया था.

वहीं, जब इसराइल ने पलटवार में लेबनान पर बमबारी शुरू की, तो वहां से शायद इससे दो गुना ज़्यादा लोगों को लेबनान छोड़कर भागना पड़ा है.

ग़ज़ा मै तबाही

हमास के नेता ये नहीं मानते कि इसराइल पर उनका हमला एक ग़लती थी, जिसने इसराइल के ग़ुस्से को उनके अवाम पर बरपा किया.

जिसके लिए अमेरिका ने हथियार और समर्थन दिया. वो कहते हैं कि इसकी वजह फ़लस्तीन पर इसराइल का अवैध क़ब्ज़ा है. मौत का खेल खेलने और तबाही मचाने का उसका शौक़ है.

एक अक्टूबर को इसराइल पर ईरान के हमले से एक घंटे या उससे कुछ पहले, मैंने ख़लील अल-हय्या का इंटरव्यू किया था.

वो ग़ज़ा के बाहर रह रहे हमास के सबसे बड़े नेता हैं. अपने संगठन में याह्या सिनवार के बाद अल-हय्या दूसरे सबसे बड़े नेता हैं.

ख़लील अल-हय्या ने इस बात से इनकार किया कि उनके लड़ाकों ने सात अक्टूबर को निहत्थे आम नागरिकों को निशाना बनाया था.

जबकि इस बात के तमाम सबूत मौजूद हैं. यही नहीं उन्होंने हमास के हमले को जायज़ ठहराते हुए कहा कि फ़लीस्तीनियों के दु:ख और तकलीफ़ को दुनिया के सियासी एजेंडे में शामिल कराने के लिए ये हमला ज़रूरी था.

ख़लील अल-हय्या ने कहा,”दुनिया में ख़तरे की ये घंटी बजाकर लोगों को ये बताना ज़रूरी था कि ये देखो. ये वो लोग हैं, जिनका एक मक़सद है और जिनकी कुछ मांगें हैं. उन्हें पूरा किया जाना चाहिए. ये हमला हमारे यहूदी दुश्मन इसराइल के लिए बड़ा ज़ख़्म था.”

इस झटके को इसराइल ने महसूस भी किया और पिछले साल 7 अक्टूबर को जब इसराइली सेना अपनी टुकड़ियां ग़ज़ा सीमा की तरफ़ रवाना कर रही थी, तो बिन्यामिन नेतन्याहू ने एक भाषण में ”भयानक बदला” लेने का वादा किया था.

उन्होंने युद्ध का मक़सद एक सैनिक और सियासी ताक़त के तौर पर हमास का ख़ात्मा करने और बंधकों को घर वापस लाने का तय किया था.

इसराइल के प्रधानमंत्री अभी भी इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि ‘संपूर्ण विजय’ हासिल करना संभव है और उनके सैनिक पिछले एक साल से हमास के बंधक बने इज़राइली नागरिकों को आज़ाद करा लेंगे.

वहीं, बंधकों के रिश्तेदार और नेतन्याहू के सियासी विरोधी इल्ज़ाम लगाते हैं कि अपनी सरकार के कट्टर राष्ट्रवादियों को ख़ुश करने के लिए वो युद्ध विराम और बंधकों की अदला बदली के समझौते की राह में अड़ंगा डाल रहे हैं.

नेतन्याहू पर ये इल्ज़ाम भी लग रहे हैं कि वो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने को इसराइली नागरिकों की ज़िंदगियों पर तरज़ीह दे रहे हैं.

इसराइल में नेतन्याहू के बहुत से सियासी दुश्मन हैं. हालांकि, युद्ध का दायरा लेबनान तक बढ़ाने से नेतन्याहू की लोकप्रियता कुछ बढ़ी है. पर वो अभी भी विवादित नेता बने हुए हैं.

लेकिन इसराइल के ज़्यादातर नागरिकों की नज़र में ग़ज़ा का युद्ध ग़लत नहीं है. पिछले साल 7 अक्टूबर के बाद से इसराइल के ज़्यादातर नागरिकों ने फ़िलिस्तीनियों पर हो रहे ज़ुल्मों को लेकर अपने आपको संगदिल बना लिया है.

युद्ध शुरू होने के दो दिन बाद इसराइल के रक्षा मंत्री योआव गैलेंट ने कहा था कि उन्होंने ग़ज़ा पट्टी की ‘पूरी तरह से नाक़ेबंदी’ करने का हुक्म दिया है.

गैलेंट ने कहा था, ” ग़ज़ा को बिजली, खाना, पानी, ईंधन कुछ भी नहीं मिलेगा… सब कुछ बंद कर दिया गया है. हम इंसानी जानवरों से लड़ रहे हैं और उसी के मुताबिक़ फ़ैसले कर रहे हैं.”

उसके बाद से अंतरराष्ट्रीय दबाव में इसराइल ग़ज़ा की नाकेबंदी में मामूल ढील देने को राज़ी हुआ है.

सितंबर महीने के आख़िर में संयुक्त राष्ट्र में नेतन्याहू ने ज़ोर देते हुए दावा किया था कि ग़ज़ा के लोगों को जितना खाना-पानी चाहिए वो उनको मिल रहा है.

हालांकि, ज़मीनी सबूत साफ़ तौर पर ये दिखाते हैं कि नेतन्याहू का दावा सही नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र में नेतन्याहू के भाषण के कुछ ही दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र की मानवीय सहायता देने वाली एजेंसियों ने एक घोषणा पर दस्तख़त करके ‘ग़ज़ा में भयंकर मानवीय तबाही और इंसानों की भयावाह मुसीबतें’ ख़त्म करने की मांग की थी.

इस घोषणा में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने कहा था, ”20 लाख से ज़्यादा फ़लस्तीनी ने पानी, साफ़-सफ़ाई, सिर पर छत, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, बिजली और ईंधन के अलावा सुरक्षा से महरूम हैं. ये किसी इंसान के ज़िंदा रहने की बुनियादी ज़रूरतें हैं. परिवारों को जबरन और बार-बार दर-बदर किया जा रहा है. उन्हें एक असुरक्षित ठिकाने से दूसरे ख़तरनाक इलाक़े में भेज दिया जाता है और उनके बचने का कोई रास्ता नहीं होता.”

बीबीसी वेरिफाई ने युद्ध के एक साल बाद ग़ज़ा के हालात का विश्लेषण किया है.

हमास द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि अब तक 42 हज़ार से ज़्यादा फ़लस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं.

अमेरिका के अकादमिक विशेषज्ञों कोरे श्केर और जामोन फॉन डेन हूक ने सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों का जो विश्लेषण किया है, उसके मुताबिक़ ग़ज़ा की 58.7 प्रतिशत इमारतें या तो पूरी तरह तबाह हो गई हैं, या टूट-फूट गई हैं.