वन नेशन वन इलेक्शन मोदी सरकार लागू करना चाहती है लेकिन लागू करने से जुड़े कई सवाल हैं
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के मुद्दे पर एक बार फिर बहस छिड़ी हुई है. केंद्रीय कैबिनेट ने ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ पर बनाई गई उच्च स्तरीय कमिटी की सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया है.
अब केंद्र सरकार दावा कर रही है कि चुनाव सुधार की दिशा में ये अहम क़दम साबित होगा. वहीं विपक्षी पार्टियां इसमें खामियां गिना रही हैं. मतलब ये है कि ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के पक्ष और विपक्ष, दोनों में ही तर्क दिए जा रहे हैं.
इन सबके बीच कुछ सवाल ऐसे हैं, जो लगातार पूछे जा रहे हैं, जैसे-
- क्या इससे चुनावी ख़र्च कम करने में मदद मिलेगी?
- क्या वास्तव में लोग इतने उदासीन हो चुके हैं कि एक साथ चुनाव कराने से इसका उपाय मिल जाएगा?
- क्या भारत के संघीय ढाँचे को चोट पहुँच सकती है?
- क्या इससे छोटी पार्टियों को नुक़सान होगा?
पक्ष बनाम विपक्ष
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के पीछे कई तरह की दलीलें दी जाती हैं. चुनावी ख़र्च को इसका बड़ा कारण बताया जाता है.
ऐसे दावे किए जाते हैं कि देश में एक साथ चुनाव कराने से विकास कार्यों में तेज़ी आएगी और सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा.
चर्चा की शुरुआत में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन की सहयोगी राष्ट्रीय लोक मोर्चा पार्टी के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा भी कुछ ऐसे ही फ़ायदे गिनाते हैं.
वो कहते हैं, ”अलग-अलग समय पर चुनाव होने से कई तरह की परेशानी होती रही है, जो हम लोग भी महसूस करते रहे हैं. एक तो ख़र्च बढ़ता ही है. दूसरा ये कि विकास भी प्रभावित होता है. अब कहीं चुनाव हो रहा है तो वहाँ मॉडल कोड लग गया. मॉडल कोड के कारण फिर वहाँ विकास के काम रुक जाते हैं.”
हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा ये मानते हैं कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से जुड़े कुछ मुद्दे हैं, जिन्हें सुलझाने की ज़रूरत पड़ेगी.
वो कहते हैं, बिल आने पर चीज़ें और साफ़ होंगी. ”जब बिल आएगा, तो उसमें ज़रूरत के अनुसार, कई जगह संशोधन करने की आवश्यकता होगी, चाहे वह संविधान में हो या अन्य क़ानूनी पहलुओं में. तब इसका वास्तविक स्वरूप सामने आएगा और इस पर बेहतर तरीक़े से चर्चा हो सकेगी.”
वहीं कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रमुख और प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को ‘शिगूफा’ बताती हैं.
उनका कहना है कि बीजेपी को आने वाले दिनों में कई चुनावों में हार का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए इस मुद्दे को ध्यान बँटाने के लिए लाया गया है.
सुप्रिया श्रीनेत ये मानती हैं कि बीजेपी के सहयोगी दल भी ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के ख़िलाफ़ खड़े होंगे. वो कहती हैं, ”ये एक शिगूफा है. ख़ुद नरेंद्र मोदी भी जानते हैं कि इसे अमल में नहीं लाया जा सकता. इस संविधान संशोधन को पारित करने के लिए 362 वोट चाहिए होंगे जबकि लोकसभा में एनडीए के पास कुल 293 सीटें हैं. वे जानते हैं कि राज्यसभा में भी उनके पास पर्याप्त संख्या नहीं है. वे यह भी जानते हैं कि आधे से ज़्यादा राज्य इसे मंज़ूर नहीं करेंगे.”
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और प्रवक्ता अभिषेक मिश्रा, सुप्रिया श्रीनेत की बात से सहमत दिखे. उनका कहना है कि ध्यान बँटाने के लिए ये मुद्दा लाया गया है.
वो कहते हैं, ”सच में भारतीय जनता पार्टी के पास असली मुद्दे नहीं बचे हैं. न कोई बात करने के लिए कुछ है, न ही दिखाने के लिए कुछ. हिंदू-मुसलमान की जो उनकी नफ़रत फैलाने की राजनीति थी, उससे देश और प्रदेश की जनता अब थक चुकी है. इसलिए अब उन्होंने एक नई चर्चा छेड़ दी है, जिससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है.”
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ और संविधान
चर्चा में कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत, ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को संघीय ढांचे पर भी चोट बताती हैं.
वो तर्क देती हैं, ”कैसे ये स्वीकार्य हो सकता है कि चुनी हुई सरकारें भंग कर दी जाएंगी. 2029 में जब ये होगा तो 17 ऐसी राज्य सरकारें होंगी, जिनके क़रीब-क़रीब दो या तीन साल बचे रहेंगे. तो उन सरकारों को भंग करने का अधिकार आपको किसने दिया? क्या यह जनादेश का अपमान नहीं है?”
उपेंद्र कुशवाहा इसे नकारते हैं. वो कहते हैं कि संघीय ढांचे पर प्रहार का तो कोई सवाल ही नहीं है.
”आप अभी जिस संघीय ढांचे की बात कर रहे हैं, वह हमारे संवैधानिक प्रावधानों के कारण है. तो संविधान के अनुसार, अगर कहीं संशोधन की ज़रूरत होगी, तो संशोधन करना पड़ेगा.”
कुशवाहा कहते हैं, ”संघीय ढांचे पर कहीं से प्रहार नहीं है, सबको यह बात स्वीकार होगी. ठीक है, राजनीतिक रूप से हम अगर विपक्ष में हैं, तो सत्ता की पार्टी कुछ भी करे, भले ही अच्छा भी काम करें, हमें विरोध करना है. यह सोचकर अगर विरोध करना हो, तो यह एक अलग बात है.”
”विपक्ष को चाहिए कि सरकार से मांग करे कि आप सर्वदलीय बैठक बुलाइए और उसमें आप हमारी राय भी जानिए. अगर इसमें कुछ जोड़ना हो या हटाना हो, कीजिए. तो मेरे ख्याल से इस पर ज़ोर देना चाहिए.”
कमिटी के प्रस्तावों के मुताबिक़ भारत में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लागू करने के लिए दो बड़े संविधान संशोधन की ज़रूरत होगी. इसके तहत पहले संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मिश्रा ये मानते हैं कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से क्षेत्रीय दलों को नुकसान नहीं होगा.
वो कहते हैं, ”चुनाव चाहे किसी भी स्तर पर हों, चाहे एक दिन में हों या सात दिन में, 70 दिन में हों या सात सौ दिन में, जहाँ की राजनीति में जो दल मज़बूत है, उनका असर रहेगा. क्षेत्रीय दलों ने वर्षों से जनता के साथ संबंध बनाए रखे हैं. ये कहना कि क्षेत्रीय दलों को इससे नुक़सान होगा, बिल्कुल ग़लत है.”
हालांकि, वो ये कहते हैं कि उनकी लड़ाई संविधान बचाए रखने की है.
मिश्रा संविधान संशोधन की बात को संविधान बदलने के तौर पर देखते हैं और कहते हैं कि अगर इसकी शुरुआत हो गई तो संविधान को पूरी तरह से बदलकर रख दिया जाएगा.
उपेंद्र कुशवाहा इस तर्क को भी खारिज़ करते हैं और कहते हैं, ”एकदम नया संविधान हो जाएगा, यह कहना कहीं से उचित नहीं है, यह बिल्कुल ग़लत है.”
क्या चुनावी ख़र्च कम हो सकता है ?
वन नेशन, वन इलेक्शन’ के लिए चुनावी ख़र्च की दलील भी कई बार दी जाती है. उपेंद्र कुशवाहा की तरह ही कई दूसरे लोग ये दलील देते हैं कि इससे चुनावी ख़र्च कम होगा.
एसवाई क़ुरैशी कहते हैं कि सरकार को ख़र्च घटाने के लिए जो वास्तव में करना चाहिए वो नहीं कर रही है. वो तर्क देते हैं, ”पिछले चुनाव में 60 हज़ार करोड़ रुपये खर्च हुए थे, देश में राजनीतिक पार्टियों के ख़र्च पर कोई रोक नहीं है. व्यक्तिगत उम्मीदवार पर रोक है. यूके में, जहाँ से हमने सिस्टम उधार लिया है, वहाँ राजनीतिक पार्टियों पर भी सीमा है. राजनीतिक पार्टियों की सीमा सरकार तय कर सकती है. ख़र्च 60 हज़ार करोड़ से घटकर छह हज़ार करोड़ हो जाएगा, अगर वास्तव में यही मक़सद था, तो इसे कर लीजिए.”
राजनीतिक पार्टियों की सीमा तय करने की बात पर उपेंद्र कुशवाहा भी सहमति जताते हैं, वो चर्चा में कहते हैं कि इस पर काम होना चाहिए.
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से खर्च कम हो जाएगा, इस तर्क पर सुप्रिया श्रीनेत पूछती हैं, ”कैसे खर्चा कम हो जाएगा? आपको तीन गुना वीवीपीएटी चाहिए, तीन गुना ईवीएम चाहिए, इसकी जो लागत है वह हमारे लोगों पर आएगी. चाहिए वो जीएसटी के टैक्सपेयर हों, चाहिए वह इनकम टैक्सपेयर हों.”
ऐसा भी दावा किया जाता है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से देश के विकास कार्यों में तेज़ी आएगी. दरअसल, चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है.
इस बात को पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ख़ारिज करते हैं, उनका कहना है कि साढ़े चार साल सत्ता में रहने के बाद भी आख़िर ‘ब्राइट आइडिया’ चुनाव के दो हफ़्ते पहले ही कैसे आ जाते हैं?
कु़रैशी कहते हैं कि जब बात देशहित की होती है तो कई चीज़ें चुनाव आयोग से पूछ कर इसके भी लागू भी कर दी जाती हैं और आयोग इसके लिए अनुमति भी दे देता है.